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लकड़ी के पारंपरिक ऐटीकोप्पका खिलौने बनाने की कला, जो लक्कपिडातालू नाम से प्रचलित है, करीबन ४०० साल से अधिक पुरानी है। वराह नदी के तट पर बसा ये छोटा सा प्राचीन गांव लाख से मढे लकड़ी के खिलौनों के लिए प्रसिद्ध है। खिलौने बनाने की यह कला टर्न्ड लकड़ी लाह के नाम से भी जानी जाती है। इस क्षेत्र के उन संपन्न जमींदारों द्वारा इस कला को संरक्षण दिया गया था, जो अपने बच्चों के लिए अनोखे ढंग के खिलौने चाहते थे।
ये खिलौने आस पास के गांवों की दैनिक दिनचर्या को पूरी तरह दर्शाते थे, जिनमें प्रमुख थे, लकड़ी की तोप, बैलगाड़ी, टॉय ट्रेन, देवी देवताओं की मूर्तियां, लट्टू, रसोईघर का सेट जिसमें खाना पकाने के बर्तन, कलछी, नकली कोयले का चूल्हा, चक्की, यहां तक कि एक कुआं भी, शामिल होते थे। दुल्हन को विवाह के अवसर पर दी जाने वाली वस्तुएं जैसे: हल्दी कुमकुम, सुपारी तथा अन्य सुगंधित द्रव्य रखने के लिए लकड़ी की बनी कटोरियां उसके दहेज का अनिवार्य हिस्सा होती थीं।
इन खिलौनों के लिए इस्तेमाल की जाने वाली नरम लकड़ी स्थानीय रूप से उगाए गए अंकुडू नामक पेड़ से ली जाती है। यह लकड़ी हल्की होती है और आसानी से काटी और तराशी जा सकती है, इसलिए खिलौनों को मनचाहा रूप और आकार देने में आसानी होती है। इस लकडी के लट्ठे हफ्तों तक धूप में सुखाए जाते हैं ताकि उसके अंदर की सारी नमी सूख जाए, फिर उसकी छाल को निकाल दिया जाता है और लकड़ी अलग अलग नाप के लट्ठों में काट दी जाती है।
लकड़ी को अनोखी आकृतियां में काटने के बाद इन्हे बीज, लाख, छाल, जड़ों और पत्तियों से तैयार प्राकृतिक रंगों से रंगा जाता है। ऐसा माना जाता है कि लाख के लिए सर्वप्रथम आवेदन १९०६ में पेश किया गया था। लाख, कीड़ों की किसी प्रजाति का रालयुक्त स्राव होता है और इसे आस पास के जंगलों से आदिवासियों द्वारा एकत्र किया जाता है, फिर इसे रंगों के साथ मिलाया जाता हैं। चटक लाल रंग बिकसा के बीज का चूर्ण पानी में उबालकर, पीला रंग हल्दी से, नीला रंग हल्दी और नील को मिलाकर और काला रंग गुड़, लोहे की जंग और कारकरी के मिश्रण से बनाया जाता है। लाख को वनस्पतियों से तैयार किए गए रंगों में मिलाकर उसका ऑक्सीकरण किया जाता है। अंत में चमकदार और रंगीन लाख प्राप्त होता है। चूंकि राल एक ज्वलनशील पदार्थ है, इसलिए लकड़ी से बनाई गई विभिन्न वस्तुओं पर इसको मढ़ने का काम बहुत सावधानी और सजगता से करना पड़ता है, यह बहुत जल्दी पिघल भी जाता है।
पुराने समय में ये ऐतिकोप्पका खिलौने बड़ी सुन्दरता से पाम की पत्तियों से बनी पिटारियों में रखकर बेचे जाते थे। उत्तम कारीगरी और मनभावन रंगों में लाख से मढे सुंदर आकृतियों और आकारों तथा चमकदार रंगों वाले ये खिलौने अपना एक विशिष्ट आकर्षण रखते हैं। इसलिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि ये लकड़ी के खिलौने न केवल भारत में प्रसिद्ध है अपितु बहुत से देशों में निर्यात भी किये जाते हैं। आंध्र प्रदेश तथा ऐटिकोप्पका के लिए ये गर्व की बात है कि इन खिलौनों को सन २०१७ में भौगोलिक संकेत टैग (जी आईं) प्राप्त हुआ ।
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