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उत्तर प्रदेश का वाराणसी शहर बहुत वर्षों तक भारत के सबसे बड़े खिलौने उद्योग के केंद्र के रूप में प्रसिद्ध रहा। माना जाता है कि इस प्राचीन कारीगरी को ना केवल अपने समय के राजाओं बल्कि मुगलों और ब्रिटिश शासकों द्वारा भी संरक्षण प्राप्त हुआ था। इस कारीगरी का प्रादुर्भाव कब और कैसे हुआ इस बात की अधिक जानकारी वाराणसी में नहीं मिलती। वैसे भी यह जग विदित है कि भोले बाबा की नगरी वाराणसी अनेकों अजूबों को अपने अंदर समेटे हुए है।
कश्मीरी गंज, खोजवा और वाराणसी में परिवार, पीढ़ी दर पीढ़ी लाख के खिलौने बनाने की इस पारंपरिक कारीगरी में लगे हुए हैं। इस उद्योग में लगे लोगों के घरों में सीमेंट के एक चबूतरे पर गोलाकार आरी जड़ी हुई दिखाई देती है, जो खिलौनों की लकड़ी को काटने के काम में इस्तेमाल की जाती है। खिलौने बनाने के लिए महुआ, युकेलिप्टस, आम, चिलबिल और हल्दू की लकड़ी का प्रयोग किया जाता है। स्थानीय निवासियों का कहना है कि पहले साल और शीशम की लकड़ी के खिलौने बनाए जाते थे परन्तु उनका मूल्य बहुत अधिक बढ़ जाने के कारण सस्ती लकड़ी का प्रयोग होने लगा है।
खिलौने का आकार और माप आदि निर्धारित करने के बाद लकड़ी के लट्ठे में से एक टुकड़ा काटा जाता है। काटा हुआ हर टुकड़ा धीमी आंच पर नमी सुखाने की प्रक्रिया से गुजरता है, फिर उस टुकड़े को साफ करके उसे चिकना किया जाता है। एक पारदर्शी कागज पर खिलौने का नक्शा खींचा जाता है, फिर लकड़ी के टुकड़े को उसी नक्शे के अनुसार छेनी की सहायता से आकार देकर तराशा जाता है। आमतौर पर पूरा खिलौना एक ही लकड़ी के टुकड़े से बनाया जाता है, परन्तु कभी कभी डिजाइन की मांग के अनुसार विभिन्न टुकडों को जोड़कर भी खिलौने तैयार किए जाते हैं।
खिलौना तराशने के बाद उसे डिस्टेंपर मे डुबो दिया जाता है। जब ये सूख जाता है तो इसे डिको नामक सफेद रंग के पेंट से दो बार रंगा जाता है और अंत में इसपर चमक लाने के लिए लाख की कोटिंग की जाती है। गिलहरी की पूंछ से बने ब्रश से उसपर डिज़ाइन बनाए जाते हैं। एक ही प्रकार के खिलौनों को एकसाथ रंगने के लिए एक रंग को अधिक मात्रा में तैयार किया जाता है। अगला रंग तैयार करने से पहले इन्हें सूखने के लिए छोड़ दिया जाता है। आकर्षक रंगों से रंगे ये खिलौने लगभग एक जैसे ही दिखते हैं, कहीं कहीं रंगों के गाढ़ा या हल्का होने से उनमें थोड़ी सी विविधता दिखाई देती है।
लाख का काम एक खराद पर किया जाता है। एक छडी पर रंग मिश्रित लाख खिलौनों पर दबा दबा कर चढ़ाई जाती है। जैसे जैसे खराध घूमती जाती है उससे उत्पन्न गर्मी से लाख पिघलकर लकड़ी की सतह पर चिपकता जाता है। कुछ लाख के टुकडों को ब्रश से रंगा जाता है। इनके लिए चमकीले, गैर विषैले और अक्रेलिक पर आधारित रंगों का प्रयोग किया जाता है।
आमतौर पर लकड़ी के बर्तन, लट्टू, पशु- पक्षी, तितलियां, आर्केस्ट्रा, नर्तक समूह तथा हर आकार प्रकार की गुड़ियां, फर्नीचर सेट अधिक लोकप्रिय होते हैं। ये सुंदर खिलौने सामाजिक जीवन, ग्रामीण गतिविधियां के साथ पारम्परिक भारतीय अलंकरणों के नमूने और संस्कृति को भी दर्शाते हैं।
यह देखकर हार्दिक प्रसन्नता होती है कि अत्यधिक लोकप्रिय और टिकाऊ होने के कारण इन खिलौनों की मांग ना केवल देश में बल्कि विदेशों में भी है और बड़े पैमाने पर इनका निर्यात किया जाता है। इन खिलौनों को सन २०१५ में भौगोलिक संकेत टैग (जी आई) प्राप्त हुआ है।
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