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“कालानमक” जी हां, ये चावल की एक खास किस्म का नाम है, जो पूर्वी उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्रों में उपजाया जाता है। इसके ऊपर की भूसी काले रंग की होती है और साथ में नमक प्रत्यय क्यों जोड़ा यह तो हमारे पूर्वज बताने के लिए हैं नहीं। बहरहाल, आपको जानकर आश्चर्य होगा कि बेहद सुगन्धित इस चावल की खेती ६०० ई ० पू० से होती चली आ रही है, यानी कि भगवान बुद्ध के काल से या शायद उससे भी पहले। इसे बुद्ध चावल के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि लोगों का ऐसा विश्वास है कि जब भगवान बुद्ध ने ‘ज्ञान बोध’ की प्राप्ति के बाद अपने छह वर्ष के तप का त्याग किया, उस समय सुजाता नामक एक ग्वालिन ने उन्हें इन्हीं चावलों की बनी खीर खिलाई थी।
चीनी यात्री फाहियान लिखता है कि ज्ञान बोध की प्राप्ति के बाद, कपिलवस्तु की यात्रा के दौरान जब ग्रामवासियों ने उनसे प्रसाद की मांग की तो उन्होंने इसी कालानमक चावल के दाने प्रसाद के रूप में दिए साथ ही उन्होंने उनसे कहा कि वे इन दानों को दलदली जगह पर बोएं, इन चावलों में एक विशिष्ट सुगंध होगी जो हमेशा लोगों को उनकी याद दिलवाती रहेगी। ऐसा कहा जाता है कि इस चावल की किस्म यदि किसी और स्थान पर उगाई जाए तो इसमें वो गुणवत्ता और सुगंध नहीं रहती।
हिमालय की तलहटी में बसे अलीगर्वा (सिद्धार्थनगर, उत्तर प्रदेश) नामक स्थान के एक कमरे में, पुरातात्विक उत्खनन के समय, कालानमक चावल जैसे कारबन युक्त दाने प्राप्त हुए हैं। यह क्षेत्र भगवान बुद्ध के पिता राजा शुद्धोधन के राज्य के रूप में जाना जाता है।
कालानमक चावल की किस्मों की उच्च श्रेणी में आता है, और पूर्वी उत्तरप्रदेश में, नेपाल की सीमा से जुड़े हिमालय की तराई में बसे क्षेत्रों में बहुतायत से उगता है। ये क्षेत्र हैं, सिद्धार्थनगर, गोरखपुर, महाराजगंज, कुशीनगर, बस्ती, देवरिया, संत कबीरनगर, बाराबंकी, बलरामपुर, बहराइच और गोंडा। यह चावल, उत्तरप्रदेश के सुगंधित काले मोती के नाम से भी मशहूर है।
विवाह के आयोजनों में, कालानमक चावल पकाना शुभ माना जाता है और ऐसा विश्वास है कि इसका धुआं भी वातावरण के शुद्धिकरण में सहायक होता है। पका हुआ चावल नरम, मुलायम, खिला हुआ, मिठास से भरा, स्वादिष्ट और सुपाच्य होता है। यह लंबे समय तक टिका रहने वाला चावल है।
लगातार, नीम, सरसों की खली और गोबर का उपयोग कर जैविक खेती के माध्यम से इसके स्वाद, सुगंध और गुणवत्ता को बनाए रखा जाता है। उर्वरकों और कीटनाशकों का प्रयोग न किए जाने के कारण इसकी खेती की लागत में भारी कमी आती है। यह चावल, अन्य किस्मों की तुलना में उसी क्षेत्र में लगभग ४० से ५० प्रतिशत अधिक उपज प्रदान करता है। एक महत्वपूर्ण कारक यह है कि खेती में जैविक तकनीक चावल को कई बीमारियों जैसे: जड़ों का सड़ना, भूरे चकत्ते पड़ जाना, पैनिक ब्लास्ट और बाक्टरियल ब्लाइट आदि के लिए आत्याधिक प्रतिरोधी बनाती है।
कालानमक चावल अपने औषधीय और रोग निवारक गुणों के लिए भी जाना जाता है। यह एंटी आक्सिडेंट से भरपूर है और इसमें उच्च एंथोसायनिन तत्त्व होता है जो हृदय रोग की रोकथाम में मदद करता है और त्वचा के स्वास्थ्य में सुधार करता है। चूंकि यह चावल आयरन और जिंक से भरपूर होता है, यह रक्त संबंधी समस्याओं का निदान करने में सहायक होता हैं। हाल के शोध में पता चला है कि कालानमक चावल मधुमेह के रोगियों के लिए बहुत लाभकारी है और इसे दैनिक भोजन में शामिल किया जाना चाहिए।
इस अनोखे किस्म की फसल की अन्तर्राष्ट्रीय बाजारों में पहचान बनाने की ज़बरदस्त क्षमता है, परंतु उच्च पैदावार और लोकप्रिय बासमती चावल के आगे इसे संघर्ष करना पड़ रहा है। अब सरकार द्वारा इसकी पैदावार बढ़ाने के लिए उच्च किस्म के बीजों के इस्तेमाल पर ज़ोर दिया जा रहा है। “पूर्वांचल का गौरव” कहलाए जाने वाले इस चावल में वसूली दर के क्षेत्र में बासमती को पछाड़ सकता है क्योंकि पॉलिश के बाद ये लाभप्रदता बढ़ाता है (कालानमक की वसूली दर ६५ प्रतिशत है जो की बासमती के ४५ प्रतिशत से अधिक है)। इसमें बासमती की तुलना में खेती और रोपाई के लिए पानी की आवश्यकता कम है। इसलिए कालानमक चावल उन क्षेत्रों में भी उगाए जा सकते हैं जहां सूखे का संकट मंडराता हो या जहां पूरे वर्ष जल संकट रहता है। यह आसानी से उपलब्ध होने वाले बासमती चावल की तुलना में लगभग चार से पांच गुना अधिक मूल्य प्राप्त करता है।
इस स्वादिष्ट कालानमक चावल के लिए पूर्वांचल के ११ जिलों को सन २०१३ में भौगोलिक संकेत टैग (जी आई) प्राप्त हुआ है।
महात्मा बुद्ध के साथ इसका नाम जुडे़ होने के कारण यह “पवित्र चावल” के नाम से प्रसिद्ध हो रहा है और सिद्धार्थनगर के गांवों से उत्पन्न होने वाली इस चावल की मनमोहक सुगंध अब उन सभी देशों में पहुंचने लगी है जो बौद्ध धर्म को मानते है जैसे कि, जापान, थाईलैंड, म्यांमार, श्रीलंका और भूटान।
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